तरही को लेकर इस बार लोग कुछ असमंजस में हैं । हालांकि काफी ग़जल़ें प्राप्त हो चुकी हैं । मगर फिर भी ऐसा लग रहा है कि मिसरे को लेकर कुछ उलझनें तो हैं । कुछ लोगों ने मिसरे पर अपने सुझाव दिये कि यदि ऐसे की जगह ऐसा कर लें तो । ये बिल्कुल ऐसा ही है कि परीक्षा पत्र में आये हुए प्रश्न के स्थान पर हम परीक्षक से कहें कि यदि हम इसके स्थान पर दूसरे किसी प्रश्न का उत्तर लिख दें तो । टास्क में ऑपश्न नहीं होते । चुनौती का मतलब ही होता है कि कोई गली नहीं । जो जैसा है वैसा ही किया जाये । जब हम सुविधा की गलियां तलाशने लगते हैं तो हमें उसकी आदत पड़ जाती है । हर बार हर काम में हम अपनी सुविधा तलाशते हैं । कुछ लोगों ने कहा कि 'जो हो रहे तो हो रहे' के स्थान पर 'हुआ करे हुआ करे' उनको ज्यादा ठीक लग रहा है । बचपन का एक किस्सा याद आ गया, स्कूल में गणित के मास्साब ने कोई प्रश्न हल करके उत्त्र तलाशने को कहा था । मेरा एक मित्र कुछ देर बाद खड़ा हुआ और कहने लगा 'मास्साब उत्तर में 45 चलेगा क्या' । मास्साब ने उसके कान उमेंठते हुए कहा 'बेटा ये गणित है किसी होटल का मीनू नहीं है कि साहब आज आलू खतम हो गया है पनीर चलेगा क्या '। मतलब ये कि जीवन भी गणित की तरह ही होता है । इसमें जो उत्तर आना है वही आना है । तरही मुशायरा दो प्रकार की परीक्षा होती है । पहली तो कहन और बहर की । दूसरी अनुशासन की । अनुशासन इस बात का कि आप मिसरे को, रदीफ को, काफिया को पूरी तरह से निभा पा रहे हैं अथवा नहीं । साहित्य एक कडे़ अनुशासन की मांग करता है । यदि आप अनुशासित नहीं हैं तो साहित्य आपको जल्द ही खारिज कर देगा । किसी संपादक ने यदि आपसे कहा है कि आपको 20 जून तक अपनी रचना भेजनी है तो ये मान कर चलें कि आपकी रचना 19 जून तक उसके पास होनी चाहिये । यदि आप ठीक 20 जून को उसे फोन करेंगे कि मेरी तो तबीयत ठीक नहीं थी, मेहमान आ गये थे, इसलिये नहीं लिख पाया, 30 तक भेजता हूं, तो जान लीजिये कि अब आप उस संपादक की गुड लिस्ट से हट चुके हैं । बाद में जब पत्रिका में आप अपनी रचना नहीं पाते हैं तो इस बात को लेकर रोना पीटना मत कीजिये कि मेरी रचना तो छापी ही नहीं ।
(नई दिल्ली में महुआ घटवारिन का विमोचन)
इस बार दिल्ली में मन को बहुत अच्छा लगा । कार्यक्रम बहुत अच्छा हुआ । महेश भारद्वाज जी ने जिस प्रकार से कार्यक्रम का संयोजन किया और श्री सुशील सिद्धार्थ ने जिस प्रकार से संचालन किया वो अद्भुत था । हिंदी के लेखक को भी महत्व दिया जाने लगा है ये एक सुखद संकेत है । उसके साथ भी ग्लैमर जुड़ रहा है । राजेन्द्र यादव जी और नामवर सिंह जी की उपस्थिति वैसे भी कार्यक्रम को गरिमा से भर देती है । महुआ घटवारिन को लेकर लिया गया निर्णय सही सिद्ध हुआ ये जानकर मन को अच्छा लगा । सामयिक प्रकाशन के साथ जाने का निर्णय सही सिद्ध हुआ । कार्यक्रम के पहले और बाद में गेट टुगेदर में कई लोगों से मिलना हुआ । सौरभ पांडेय जी, सौरभ शेखर से पहली बार मिलना हुआ । मिलकर बहुत बहुत अच्छा लगा । सच कहूं तो जो सौरभ पांडेय जी ने कहा कि लगा ही नहीं कि पहली बार मिल रहे हैं वही मुझको भी लगा । अर्श से विवाह के बाद पहली मुलाकात हुई । कुछ लोग जिन्होंने वादा किया था कि वो कार्यक्रम में रहेंगे वे वादा करके भी नहीं आये । खैर कार्यक्रम एक अलग प्रकार का अनुभव दे गया ।
इस बार का भाषण चुटकियों से भरा हुआ दिया । लगा कि गंभीर साहित्यिक भाषण देने का काम तो बाद में उम्र भर करना ही है अभी तो ज़रा कुछ हल्का फुल्का हो जाये ।
तिलकराज कपूर जी ने एक प्रश्न किया था : एक प्रश्न निरंतर परेशान कर रहा है कि एक अच्छे शेर के मूल तत्व क्या होते हैं।
यह प्रश्न एक पूरे विमर्श पूरी बहस की संभावना से भरा हुआ है । अच्छे शेर के मूल तत्व क्या होते हैं । तिलक जी ने ये भी पूछा कि शेर वो अच्छा होता जो केवल प्रबुद्ध लोगों को समझ में आये, या वो जो हर किसी को समझ में आ जाये । ये मूल प्रश्न के साथ जुड़ा हुआ एक महत्वपूर्ण उपप्रश्न है । शेर क्यों हो, कैसा हो, ये बात हर किसी को मथती है । आइये इसके उत्तर आप और हम मिलकर तलाशने की कोशिश करते हैं । समय परिवर्तन लाता है और समय के साथ हर चीज़ को बदलना होता है । साहित्य भी समय के साथ परिवर्तित होता रहता है । साहित्य के हर युग में तीन प्रकार के साहित्यकार होते हैं । पहले वे जो भूतकाल में उलझे होते हैं । अर्थात जो भाषा, शिल्प, कहन, कथ्य, विचार आदि सब वही रखते हैं जो बीत चुके हैं । ये यदि 2012 में भी रचना लिख रहे हैं तो इस रचना को पढ़कर, सुनकर ये लगता है कि ये रचना 1962 में लिखी गई हो । दूसरे साहित्यकार वे होते हैं जो वर्तमान में रहते हैं । अपने समय पर पैनी नज़र रखते हैं । और सब कुछ अपने वर्तमान समय से ही लेते हैं । इनका साहित्य अपने समय का प्रतिबिम्ब होता है । ये साहित्य की मुख्य धारा होती है । तीसरे वे जो अपने समय से आगे का साहित्य रचते हैं । ये बहुत कम होते हैं । ये दुस्साहसी होते हैं । वर्तमान समय इनको खारिज करने की कोशिश करता है । उपहास उड़ाता है । किन्तु आने वाला समय इनके स्वागत में खड़ा होता है । ग़ालिब और कबीर इसी धारा के रचनाकार हैं । इन्होंने अपने समय से आगे का लिखा । बहुत आगे का लिखा । तो सबसे पहले तो अप अपने लिखे हुए का अध्ययन करें और अपने आप को पकड़ने का प्रयास करें कि आप इन तीनों में कहां हैं ।
शेर के बारे में मेरा अपना विचार ये है कि शेर का सबसे आवश्यक तत्व है उसकी मासूमियत, उसकी सादगी । जितनी सहजता के साथ बात कही जायेगी उतनी आनंद देगी । इसलिये क्योंकि पूर्व निर्धारित वज़्न पर कठिन तरीके से बात कहना सरल है, किन्तु, सरल तरीके से बात कहना कठिन है । आप अपने समय की भाषा में बात करिये । जो लोग कहते हैं कि साहित्य की भाषा अलग होनी चाहिये, वे साहित्य को आम आदमी से दूर ही कर रहे हैं । दोहरा मानदंड नहीं चलेगा । आम आदमी पर यदि आपने कविता लिखी है तो आम आदमी को समझ में भी आनी चाहिये । एक ज़माने में पान वाले, होटल वाले, शेरों के सबसे अच्छे मर्मज्ञ होते थे । साहित्य को कठिन मत कीजिये । उसे फैलने दीजिये । नीरज जी की मुम्बइया ग़ज़लों को मैं इसीलिये प्रोत्साहित करता हूं । कि कम से कम नई ज़मीन तो तोड़ी जा रही है । अभी कल ही स्व. जगजीत सिंह जी का नया एल्बम सुन रहा था उसमें एक गीत है 'तू अम्बर की आंख का तारा' उस गीत में ये पंक्तियां आईं-
तुझको सारे मन से चाहा, चाहा सारे तन से
अपने पूरेपन से चाहा, और अधूरे पन से
मैं चौंक गया । चौंक गया क्योंकि कुछ नया था । 'चाहा सारे तन से' में जैसे प्रेम का पूरा शास्त्र लिख दिया है और फिर अगली ही पंक्ति में 'और अधूरेपन से' । तीन बार पीछे करके पंक्तियों को सुना । तीसरी बार आंखों में आंसू आ गये । साहित्य अपना काम कर चुका था । वो सार्थक हो चुका था । 'चाहा सारे तन से' इस आधी पंक्ति में ऐसा क्या है जो इसे फिर फिर सुनने पर मजबूर कर रहा है । और ऐसा क्या है उस अधूरेपन में जो पूरेपन पर भारी पड़ रहा है । बस ये है कि कुछ नया घट गया है । बहुत सादगी के साथ । बहुत निश्छलता के साथ । उस भाषा में जिसे हर कोई समझ सकता हो । इसी एल्बम में एक और नज़्म है 'जाओ अब सुब्ह होने वाली है' उसमें ये पंक्तियां आती हैं
सर उठाओ ज़रा इधर देखो, इक नज़र, आखिरी नज़र देखो
इसमें कोई नई बात नहीं कही गई है, मगर लिखने वाले ने इसमें इतनी सरलता के साथ बात कही है कि बात मन को भा रही है । दो चीजें हैं सरल बात को कठिन तरीके से कहना और कठिन बात को सरल तरीके से कहना । साहित्य दूसरे तरीके की मांग करता है । मगर अफसोस ये है कि प्रबुद्ध वर्ग पहले तरीके से लिखने वालों को प्रोत्साहन देता है । शेर तो वैसे भी दूसरे और केवल दूसरे तरीके की ही मांग करता है । संप्रेषणीयता दूसरे ही तरीके में होती है । शेर में यदि संप्रेषणयीता नहीं है तो वो कही नहीं पहुंचेगा । तिलक जी ने ये भी पूछा था कि शेर में मुहावरों कहावतों का उपयोग क्या उनकी सुंदरता बढ़ाता है । मेरे विचार में शेरों में कहावतों का प्रयोग करने अच्छा है ऐसे शेर लिखे जाएं जिनके मिसरे स्वयं ही कहावत बन जाएं । बहुत पहले किसी मंच पर वीर रस के कवि द्वारा नारे लगवाये जाने से दुखी होकर एक गीत कहा था जिसका मुखड़ा कुछ यूं था-
उसको कविता कैसे कह दूं जो नारे लगवाती है
कविता तो वो होती है जो ख़ुद नारा बन जाती है
कविता में नारे न हों, कविता स्वयं नारा बन जाये ( कवि शैलेन्द्र का गीत हर जोर जुल्म की टक्कर में..... आज नारा बन चुका है )
(सामयिक प्रकाशन के श्री महेश भारद्वाज जी के साथ )
कुछ प्रश्नों के उत्तर तलाशने की कोशिश की है, कुछ का आगे कोशिश करेंगे । ग़ज़लें भेजिये और दीपावली के मुशायरे को सार्थक बनाइये ।