कभी कभी मैं सोचता हूं कि पर्व, त्यौहार, उत्सव इन सब का प्रयोजन क्या है, क्यों मनाये जाते हैं ये । और ये कि कुछ पर्व क्या किसी धर्म विशेष के लिये ही हैं । बहुत मनन करने पर पाता हूं कि विभिन्न धर्मों के अवतारों, पैगम्बरों के जन्मदिन निश्चित रूप से धार्मिक त्यौहार हैं, क्योंकि वो धर्म विशेष से जुड़े हैं । किन्तु होली, बैसाखी, वसंत पंचमी, दीपावली, शरद पूर्णिमा ये धार्मिक त्यौहार नहीं हैं । ये तो पर्व हैं । ऋतु पर्व । एक दूसरे से लगभग विपरीत आती हैं होली और दीपावली । लगभग छ: माह के अंतर पर । भारत पर ऋतुओं की विशेष मेहरबानी होती है । हम तेज़ गर्मी भी झेलते हैं और कड़ी ठंड भी । गर्मी और ठंड के बीच आती हैं क्रांतिक ऋतुएं । शरद और वसंत । आनंद की ऋतुएं । वसंत मन में उल्लास भरता है, क्योंकि ठंड के तुरंत बाद शरीर और मन स्फूर्त होता है । सो वसंत में आता है उल्लास का पर्व होली । शरद में मन शीतलता की तलाश करता है क्योंकि ग्रीष्म की तपन भोगा हुआ होता है । सो शरद में आती है दीपावली । वसंत पंचमी और होली युगल पर्व हैं तो श्रद पूर्णिमा तथा दीपावली भी युगल पर्व हैं । ये पर्व धार्मिक नहीं हैं, ये मौसम के पर्व हैं । मौसम किसी धर्म के नहीं होते वे सारी सृष्टि के होते हैं । कर्क रेखा और मकर रेखा के आस पास बसे लोगों को ही मौसमों का ये आनंद मिलता है । क्योंकि इन दोनों रेखाओं के आस पास ही मौसम अपने सारे रंग दिखाते हैं । शरद, वसंत, शीत, ग्रीष्म, वर्षा सब कुछ । तो आइये ऋतु पर्व के आयोजन में सहभागी हों ।
''घना जो अंधकार हो, तो हो रहे, तो हो रहे''
इस बार का तरही मिसरा जब दिया था तो ऐसा लग रहा था कि कुछ अधिक कठिन हो गया है । लेकिन एक बार फिर रचनाकारों ने मुझे ग़लत साबित कर दिया । पहले ही दिन धड़ाधड़ दो ग़ज़लें आ गईं । और दोनों ही कमाल की । दूसरे दिन दो गीत, दोनों कमाल के । आनंद आ गया । गीतों और ग़ज़लों के दीपकों के साथ इस बार दीपावली का ये पर्व रौशन होने वाला है ऐसा लग तो रहा है । एक व्यक्तिगत मेरा मत ये है कि इस बहर और इस मिसरे पर बहुत अद्भुत कुछ गढ़ा जा सकता है । यदि एकाग्र होकर कार्य किया जाये तो कुछ अनोखा रचा जा सकने की बहुत संभावना है । बस एक बात ये है कि सामान्य रचना प्रक्रिया से हट कर सोचना होगा । सामान्य रचना प्रक्रिया में आपके पास सीमित प्रतीक, बिम्ब, उपमाएं और विचार होते हैं । जिनको लेकर हठीला जी कहा करते थे 'अंधा चूहा हमेशा घट्टी (चक्की) के आस पास'' । एक समय ऐसा आ जाता है कि रचनाकार भी अंधा चूहा हो जाता है । वो चक्की के आस पास ही रहता है । अर्थात उसके पास विचार, शिल्प, कथ्य सब कुछ पूर्व से निर्धारित हो जाता है । वो विचारों की चक्की के दायरे से बाहर नहीं निकल पाता । एक प्रकार की मोनोटोनी उसकी कहानियों में आ जाती है । लेखक बार बार स्वयं को दोहराता है । वो नारसीसस हो जाता है । यदि लेखक भी इस प्रकार की आत्म रति का शिकार हो जाये तो वो भी स्वयं को पसंद करने लगता है और आश्चर्य करता है कि दूसरे उसे क्यों पसंद नहीं करते ।
( नार्सिसस एक यूनानी मिथक का पात्र है । एक ऐसा पुरुष, जो दिन रात अपनी खूब-सूरती पर ही रीझता रहता है । वह जल में अपनी छवि देखता है और घंटों उस छवि को ही निहारता रहता है)
हर रचनाकार के जीवन में ये नार्सिसिस्ज्म आता ही है । इसको आत्म रति नाम भी दिया गया है । ये एक प्रकार का डिसआर्डर है । आप अपने सबसे बड़े प्रशंसक हो जाते हैं । और हर उस व्यक्ति को पूर्वाग्रह से, ईर्ष्या से ग्रस्त मानते हैं जो आपकी रचनाओं की स्वस्थ आलोचना कर रहा है । रचनाकार को रचना लिख कर समाप्त होने के ठीक तीसरे दिन उस रचना का सबसे बड़ा आलोचक हो जाना चाहिये । तीसरे दिन इसलिये क्योंकि कम से कम तीन दिनों तक तो रचना के पूरे होने का मद उसके सिर पर चढ़ा रहेगा । वो उस रचना के प्रभामंडल में रहेगा । तीसरे दिन उसे ज़मीन पर आ जाना चाहिये । आत्म रति या नार्सिसिस्ज्म को आप तीन दिन का ही समय दें । यदि आपने इसे तीन दिन से अधिक समय दिया तो ये आपको खाने लगेगा । इन सबके लिये आपको नई ज़मीन को तोड़ना ही होगा । अपनी रचनाओं के लिये नई पड़त ज़मीन को तोड़ें । उस ज़मीन पर फसल न उगाएं जिस पर आपसे पहले प्रेमचंद, कबीर, गालिब, रेणु, मीर, और जाने कितने कितने फसल उगा कर जा चुके हैं । अपने लिये समय मिलने पर नई ज़मीन तोड़ें । वो ज़मीन जिस पर आप पहली बार हल चला रहे हों, आपसे पहले किसी न हल न चलाया हो । मगर हमारे साथ तो क्या होता है कि हम एक ही ज़मीन पर कई कई बार खेती करने लगते हैं । ज़मीन की उर्वरा शक्ति कम होती जाती है । हम समझ भी नहीं पाते कि क्या हो रहा है ।
लगता है कि बहुत लम्बा प्रवचन हो गया है । तो चलिये अब ग़ज़लें और कविताएं लिख डालिये और भेज दीजिये । इस बीच दो दिनों के लिये दिल्ली जा रहा हूं । 25 अक्टूबर को शाम 6 बजे दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में श्री नामवर सिंह जी, श्री आलोक मेहता, श्री राजेंद्र यादव, मैत्रेयी पुष्पा जी के हाथों नये कहानी संग्रह महुआ घटवारिन का विमोचन होना है । सो बस दो दिनों के लिये वहीं हूं । लौट कर आपसे बातें होंगीं । यदि आप दिल्ली में हैं तो अवश्य आएं ।
Meri hardik Badhayi v shubhkamanyein
जवाब देंहटाएंपर्व और त्यौहार, दो संज्ञाएँ. किन्तु उनकी अंतर्धाराएँ कितनी अलग-अलग ! सही प्रारूप से परिचित करने के लिये आपका धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंआदरणीय पंकजभाईजी, सब सही रहा तो 25 अक्तूबर को IIC के परिसर में मुलाकात होगी.
-सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)
अपनी भी शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंआज का आलेख अत्यंत महत्वपूर्ण है। आत्ममुग्धता का चरण शायद हर रचनाकार के जीवन में आता है और उससे पार होना कठिन भी हो जाता है यह मेरा निजि अनुभव है। इसी को लेकर कुछ प्रश्न पंकज भाई के समक्ष रखे हैं। अब चर्चा आरंभ हुई है तो कुछ स्पष्टता तो आयेगी ही।
जवाब देंहटाएंनारसीशियस होना बुरा नहीं, उसमें खोये रहना ठीक नहीं। जो कुछ रचें उसका आनेद लें और आगे बढ़ जायें इसी में विकासा है।
आप दिल्ली जा रहे हैं और मैं दिल्ली से आ रहा हूँ...पिछले दिनों बहुत व्यस्तता रही...इसलिए ग़ज़ल के मिसरे पर नज़र डाल के ही उसे छोड़ दिया...परसों खोपोली लोटूंगा तब देखता हूँ....जयपुर में इष्टि मिष्टी अपने आप में मीर की ग़ज़लें हैं...और कहीं ध्यान जाता ही नहीं...आपने सच कहा इंसान को आत्मरति के शिकार होने से बचना चाहिए और कुछ नया सोचना चाहिए लेकिन नया सोचना सहज नहीं होता...सेहरा में पानी की तलाश है प्रभु...एक बार कुआं खोद के उसी में से पानी निकालते जाने में कोई बहादुरी नहीं...
जवाब देंहटाएंसम्मान के लिए अग्रिम बधाई...ढेरम ढेर बधाई...
नीरज
हम सब सौभाग्यशाली हैं जो वरिष्ठ जनों के अपार अनुभवजन्य ज्ञान को इतनी आसानी से प्राप्त कर पा रहे हैं।
जवाब देंहटाएंरोचकता चरम पर पहुँचे, हमारी शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंपंकज, आज की पोस्ट बहुत महत्त्वपूर्ण है । धन्यवाद । विमोचन की अग्रिम बधाई ।
जवाब देंहटाएंआपको बहुत बहुत बधाइयां दिल्ली के कार्यक्रम में आतिथि बन कर जाने के लिये।
जवाब देंहटाएंकई बातें गाँठ बाँध कर रख ली है, बस यही दुआ है कि अगर कभी इन परिस्थितियों से गुजरूँ तो उस वक़्त ये गाँठ बाँधी हुई बातें जल्दी खुल जाएँ और मार्गदर्शन करें. इस कठिन और टेढ़े मिसरे पर भी लोग कितनी सहजता से लिख रहे हैं ये आपकी बात से ज़ाहिर हो जा रहा है मगर इस मिसरे को निभाना मुश्किल तो है मगर नामुमकिन नहीं.
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