शनिवार, 10 जनवरी 2015

आइये आज तरही मुशायरे के क्रम को और आगे बढ़ाते हैं। धर्मेंद्र कुमार सिंह और भुवन निस्‍तेज के साथ।

मित्रों ये समय बहुत व्‍यस्‍तताओं से भरा हुआ है । कई सारे काम एक साथ समानांतर चल रहे हैं । और उनमें ही अपना ये तरही मुशायरा भी चल रहा है। व्‍यस्‍तताओं का अपना ही एक आनंद होता है । और उनके बीच में से ही निकल आता है थोड़ा सा समय। विचार और व्‍यस्‍तता का छत्‍तीस का आंकड़ा होता है। जहां व्‍यस्‍तता है वहां विचार होना ज़रा मुश्किल होता है। लेकिन बात वही है कि फिर भी संभावना तो हर समय होती ही है। जैसे इस समय है । कुछ लोग कहते हैं कि लेखक रचना को रचता है । मेरा मानना है कि विचार ही किसी रचना को रचते हैं, लेखक नहीं । और विचार के लिये आवश्‍यक है कि दिमाग कुछ व्‍यस्‍तता से दूर हो। खैर । आइये आज चलते ह‍ैं। तरही मुशायरे की ओर। आज हमारे चिर परिचित धर्मेंद्र कुमार सिंह हैं और एक नये शायर भुवन निस्‍तेज हैं। भुवन के रूप में हमारे मुशायरे में पहली बार नेपाल से कोई शायर आ रहे हैं। भुवन का फोटो मैंने बस अंदाज से इंटरनेट पर तलाश करके लगा दिया है । तो आइये दोनों का स्‍वागत करते हैं और दोनों से उनकी ग़ज़लें सुनते हैं।

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मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई

dharmendra kumar

धर्मेन्द्र कुमार सिंह

मुस्कुराने जब लगी नन्हीं परी सोई हुई
रूह में जगने लगी हर गुदगुदी सोई हुई

आप को जो लग रही है बेख़ुदी सोई हुई
फाड़ देगी छेड़िये मत शेरनी सोई हुई

मेघ का प्रतिबिम्ब दिल में किन्तु जनहित के लिए
बाँध की बाँहों में है चंचल नदी सोई हुई

जाग जाए तो यकीनन क्रांति का हथियार ये
है दमन की सेविका भर लेखनी सोई हुई

मौत के पैरों तले कुचली गई थी कल मगर
आज फिर फुटपाथ पर ही जिंदगी सोई हुई

आ के आधी रात को चुम्बन लिया नववर्ष ने
ले के अँगड़ाई उठी है जनवरी सोई हुई

उस मिलन से खूबसूरत दॄश्य फिर देखा नहीं
मोगरे के फूल पर थी चाँदनी सोई हुई

हूं.... चूंकि धर्मेंद्र जी बांधों आदि से जुड़े हैं उसी महक़मे में हैं इसलिये बांध की बांहों में चंचल नदी के सोने का कमाल दृश्‍य खींचा है। और अहा हा हा जनवरी के उठने का सीन तो कमाल है। नव वर्ष का ये मुशायरा सार्थक हो गया है। आ के आधी रात को चुम्‍बन लिया नव वर्ष ने अहा। मौत के पैरों तले कुचलने के बाद भी उसी फुटपाथ पर सोने की बेबसी को बहुत मार्मिक ढंग से शेर में बांधा गया है। शायर की लेखनी उस दर्द को उकेरने में कामयाब रही है। और अंतिम शेर पर जिसे कमाल के साथ मिसरे पर गिरह लगाई है उसके लिये सलाम। उस मिलन से खूबसूरत दृश्‍य फिर देखा नहीं । वाह वाह । क्‍या बात है।

bhuwan nistej

भुवन निस्तेज

मैं भुवन बोहरा हूँ नेपाल से  और आपके ब्लॉगका नया नया पाठक हूँ. नेपाली भाषा में गजले लिखा करता हूँ और सीखने के उद्देश्य से हिंदी भाषा में भी लिखने का प्रयत्न करता हूँ. आपके द्वारा नए साल्पर तरही मयोजन्संचलित होने की खबर कल ही पढ़ पाया तो मुझमे भी एक रचना प्रेषित करने की इच्छा जाग गयी. आशा है उचित मार्ग दर्शन होगा.

ख्वाब देखा बांह में थी उर्वशी सोई हुई
जग गई फिर नींद से शाइस्तगी सोई हुई

ये ख़ुशी सोई हुई ये शायरी सोई हुई
ज़िन्दगी-जिंदादिली सोई हुई सोई हुई

खामुशी की बर्फ़ को यों भी कुरेदा मत करो
है यहाँ चुपचाप कोई हिमनदी सोई हुई

इस महल के खंडहर से ये हवा टकराई तो
आगई लेकर कहानी अनकही सोई हुई

चोट खाकर मुस्कुराती मूर्ति पत्थर बनी
ज़िन्दगी बेजान पत्थर में मिली सोई हुई

बाग़ में अब भी असर उस रात का बाकी ही है
रतजगे से फूल की है पंखुड़ी सोई हुई

राह भटके जुगनुओं के ये उजाले देखकर
गुनगुनाने लग गई है खामुशी सोई हुई

क्यों किसी मज़लूम को इतना डराया जाये कि
जागने लग जाये अन्दर छावनी सोई हुई

रात ने शामो-सहर औ’ चाँद से पूछा मगर
'मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई'

मैकदे की रौनकें जिसको जगा पाई न हो
जग उठी तन्हाई में वो तिश्नगी सोयी हुई

क्‍या कमाल की इण्‍ट्री की है। विशेष कर उस शेर में जहां सोई हुई के ही दोहराव से काफिये को बांधने की कोशिश की है । रदीफ को काफिया में बदलने का कमाल किया है। खूब। और ठीक उसके बाद का शेर भी खूब है जिसमें हिमनदी का काफिया चौंकाता हुआ आया है। नदी काफिया तो हर गजल में आ रहा है लेकिन हिमनदी आना और सुंदर हो गया है। बाग में फूल की पंखुरी के सोने का बिम्‍ब भी सुंदर बन पड़ा है। और एक और शेर जिसमें छावनी काफिये को सुंदर तरीके से गूंथा गया है। जागने लग जाये अन्‍दर छावनी सोई हुई। वाह वाह । कई कई आंदोलनों को प्रतिध्विनत करता है ये शेर। खूब वाह वाह वाह।

तो ये हैं आज के दोनों शायर । दोनों की ग़ज़लें सुनिये और दाद दीजिये । मिलते हैं अगले अंक में ।

46 टिप्‍पणियां:

  1. वाह वाह वाह वाह वाह!
    बांधों के निर्माता इंजिनियर धर्मेन्द्र कुमार सिंह ग़ज़ल के शेर के बांध का निर्माण भी बाखूबी कर रहे हैं।उनकी सारी ग़ज़ल मेरी बात की पुष्टि ही कर रही है। मौत के पैरों तले वाला शेर विलियम फॉकनर के शब्द याद करा गया
    'Man will not only endure but will prevail.'
    उम्दा ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई भाई ग़ज़ल इंजीनियर साहब । ज़िंदाबाद।
    भुवन निस्तेज जी की ग़ज़ल का तेज तो यह ताक़ीद कर रहा है कि उन्हें अपना तख़ल्लुस बदल लेना चाहिए।
    गुरुदेव सुबीर के पीसे हुए को छानना सूरज को चराग़ दिखाने जैसा है । हिमनदी और छावनी क़ाफ़ियों वाले शेर निः सन्देह बहुत खूब हैं।भुवन जी को भी हार्दिक बधाई।

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    1. तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ द्विजेन्द्र जी

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    2. अत्यधिक धन्यवाद आदरणीय द्विज साहब. आप जैसे व्यक्तित्व से प्राप्त उत्साहवर्धन सदैव हितकारी रहेगा....

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  2. वाह वाह...धर्मेन्द्र कुमार सिन्ह साहब कमाल की गज़ल कही है...वाह
    शेरनी वाला शेर क्या लाजवाब है,
    है दमन की सेविका भर लेखनी सोई हुई...कितना कुछ कह गए आप...और गिरह भी उम्दा लगाई है, मुबारकबाद...
    भुवन निस्तेज जी की ग़ज़ल ने वाकई मुशायरे में चार चांद लगा दिए...हर शेर बेहतरीन...चोट खाकर मुस्कुराती मूर्ति पत्थर बनी...बहुत खूब...छावनी सोई हुई शेर सचमुच कई गाथाओं का आभास करा रहा है. पंकज जी, रचनाकारों ने अपना काम बखूबी करके दिखाया है. और इसके लिए आप सबसे ज़्यादा मुबारकबाद के हक़दार हैं-
    आपने आवाज़ दी और अहले-फ़न हाज़िर हुए
    जाग उठी हम सभी की लेखनी सोई हुई
    शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

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  3. धर्मेन्द्र जी और भुवन जी दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें ।बड़ा खूबसूरत कलाम है आप दोनों । धर्मेन्द्र जी ने खूब बांधा है नदी को, साथ ही हम पढ़ने वाले भी बंधगए। और भुवन जी मैं द्विज साहब से सहमत हूँ।:)
    सादर

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  4. भाई धर्मेन्द्रजी अपने शेरों के बिम्ब अपने आस-पास से उठाते हैं इसी कारण आपके शेर जीये हुए प्रतीत होते हैं. इसकी हामी भरता हुआ शेर हुआ है -
    मेघ का प्रतिबिम्ब दिल में किन्तु जनहित के लिए
    बाँध की बाहों में है चंचल नदी सोयी हुई


    बाँध की बाहों में चंचल नदी के सोये होने को समझने के लिए बाँध के पूरे मकेनिज्म को समझना होगा. तभी नदी का जगना और सोना सहज ही समझ में आ सकता है. इस ज़िन्दा शेर के लिए धर्मेन्द्र भाई को हार्दिक बधाई.

    फिर, नववर्ष के चुम्बन से जनवरी का अँगड़ाई लेते हुए चैतन्य होना एक दृश्य उपस्थित कर रहा है. बहुत ही दिलकश ! बहुत खूब भाई.
    दिल से दाद लीजिये.


    भाई भुवन निस्तेजजी को इस मंच पर देख कर हार्दिक प्रसन्नता हुई है. वैसे पंकजभाईजी ने उनकी बचपने की तस्वीर लगा दी है.
    एक कार्यक्रम के सिलसिले में आपसे मेरी मुलाकात हो चुकी है. और मैं आपके शिष्ट आचरण तथा आपकी नम्रता का क़ायल हो गया हूँ. जिस तन्मयता से आप हिन्दुस्तानी ग़ज़ल के लिए प्रयास करते हैं वह हम सभी के लिए मुग्धकारी है, नेपाली भाषा में आपकी ग़ज़लें प्रसिद्ध हैं.
    आपकी हिन्दी (हिन्दुस्तानी) ग़ज़लों को पढ़ते हुए मुझे अब एक समय हो गया है.
    इस मंच पर आपकी सार्थक उपस्थिति से मैं बहुत ही आश्वस्त हूँ.

    आपकी ग़ज़ल का कमोबेश हर शेर एक दृश्य प्रस्तुत कर रहा है. ऐसा गढ़ लेना कितना कठिन है यह् हम सभी खूब समझते हैं. किस एक शेर का नाम लूँ ? ऐसे इस ग़ज़ल में कई हैं

    ये खुशी सोयी हुई ये शायरी सोयी हुई
    ज़िन्दग़ी-ज़िन्दादिली सोयी हुई सोयी हुई
    .. . वल्लाह ! क्या वातावरण गढ़ दिया आपने भाईजी ! वाह !

    नेपाल में हिमनदी की कैसी या क्या भूमिका है यह उस हिमालय प्रदेश की गोद में जीने वाले बखूब समझते हैं. इस शेर को भुवन भाई ही कह सकते थे.

    लेकिन मज़ा आ रहा है ग़िर्ह के शेर को पढ़ कर.
    बधाई-बधाई-बधाई

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    1. तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ सौरभ जी, स्नेह बना रहे

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    2. आदरणीय यह आप जैसे सुधीजनों का स्नेह ही है कि मैं लगातार अंतरजाल के मंचों पर उपस्थित रह पा रहा हूँ. आश है आपका सदैव मार्गदर्शन रहेगा...

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  5. शायरी की सबसे बड़ी कामयाबी तब होती है जब उसमें या तो कोई नयी बात की जाय या फिर पुरानी बात को नए ढंग से कहा जाय। पुरानी बात को नए तरीके से कहना फिर भी आसान है लेकिन बिलकुल नयी बात करना थोड़ा मुश्किल होता है।

    आज के शायरों ने नयी बात कहने की कामयाब कोशिश की है। धर्मेन्द्र भाई की ग़ज़लें तरही में हमेशा से अपनी छाप छोड़ती आई हैं , इस बार उन्होंने बेहतरीन शेर भी कहे और नई ज़मीन भी तलाश की। " बाँध की बाँहों में है चंचल नदी सोयी हुई " और ले के अंगड़ाई उठी है जनवरी सोयी हुई " ऐसे ही अनूठे शेर हैं जिन्हें बार बार पढ़ने को जी करता है। बहुत बहुत बधाई धर्मेन्द्र जी इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए।

    भुवन जी को पहली बार पढ़ा और उन्हें अधिक पढ़ने की चाह दिल में पैदा हुई। पहली ग़ज़ल पढ़ कर ही उनके बेहतरीन शायर होने का प्रमाण मिल गया है। "ख़ामोशी की बर्फ ---", चोट खा कर मुस्कुराती --- ", और इन सब से ऊपर क्यों किसी मजलूम को ---"वाला शेर जिसका काफ़िया जान लेवा है। छावनी शब्द का ऐसा अद्भुत प्रयोग पहले कभी पढ़ने को मिला हो याद नहीं आता। भुवन जी मेरी ढेरों दाद कबूलें।

    तरही जैसे जैसे आगे बढ़ रही है आनंद भी उसी अनुपात में बढ़ रहा है -- अगली कड़ी का बेताबी से इंतज़ार है।

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    1. आदरणीय नीरज जी आपके यह शब्द मेरी उर्जा को बनाये रखने में मददगार सिद्ध होंगे. आपका बहुत बहुत शुक्रिया...

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  6. एक से बढ़ कर एक गज़लें आ रही हैं इस मंच पर:

    बाँध के आगोश में जब ले नदी अँगड़ाईयाँ
    जागती है शायरी तब सज्जनी सोयी हुई

    और भुवन जी के लिये

    दाद ये मेरी दिली निस्तेजजी स्वीकारिये
    क्या गज़ल है आपने आकर कही सोयी हुई.

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    उत्तर
    1. तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ राकेश जी। स्नेह बना रहे

      हटाएं
    2. आभारी हूँ आदरणीय राकेश साहब, इस सस्नेह प्रतिक्रया के लिए...

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  7. वाह धर्मेन्द्र जी , आपको पढ़ना हमेशा की तरह सुखद रहा । हर शेर काबिले तारीफ है । मतले में नन्ही परी और गुदगुदी का सुन्दर तालमेल , शेर शानदार बन पड़ा है । "आज फिर फुटपाथ पर जिंदगी सोई हुई " आज के समाज के एक वर्ग का कड़वा सच कह रहा है । सब से सब शेर पर मुँह से वाह ही निकलते है । बहुत बहुत बधाई आपको ।

    भुवन जी , भले आप कह रहे हैं कि आप सीखने के उद्देश्य से ग़ज़ल लिख रहें हैं ,पर मुझे तो आपकी शायरी बड़ी जोरदार लगी । उर्वशी , पंखुड़ी ,छावनी ……वाह कैसे कैसे सुन्दर शब्द आपने काफिये में प्रयोग किया । आपके शेर बताते हैं की हिंदी ग़ज़ल में भी आप शिखर तक जायेंगे । मेरी शुभकामनायें आपको । सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई ।

    पंकज जी शुरुआत से ही शानदार रहा ,बेहद सुन्दर-सुन्दर शेर सामने आ रहें हैं । मुशायरे की सफलता के लिए हार्दिक बधाई ।

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    1. आदरणीय विनोद कुमार पाण्डेय जी, प्रतिक्रिया एवं स्नेह के लिए आभार. मेरा सदैव यह मानना रहा है की सीखने की प्रक्रिया यदि जीवन पर्यंत बनी रहे तो जीवन में नवीनता भी बनी रहेगी. मैं हिंदी भाषा का उतना जानकार नहीं हूँ, हाँ नेपाली भाषा में मैं काफी अरसे से गज़लें कह रहा हूँ. पर हिंदी में इसका अभ्यास ज्यादा होता रहा है अतः यहाँ से ज्यादा सीखने की उम्मीद रखता हूँ. अच्छी बात तो यह है की मुझे अभी तक निराशा नहीं हुई...

      हटाएं
  8. धर्मेन्‍द्र जी ने सोई हुई बेखुदी को जिस तरह प्रस्‍तुत किया है वह बाकमाल है। इतनी ग़ज़लें कह चुके हैं कि पुस्‍तक छप चुकी है। आस-पास के दृश्‍यों से शेर उठाने में दृश्‍य प्रस्‍तुति कितनी मज़बूत हो सकती है उसका उदाहरण हैं इनके सभी शेर।

    भुवन निस्‍तेज (द्विज जी ने सही कहा निस्‍तेज नहीं तेज) को ओबीओ पर पढ़ने का अवसर तो मिलता रहा है, यहॉं पहली बार देख रहा हूँ ; स्‍वागत है। सीखने की अदम्‍य उत्‍कंठा निरंतर इनमें देखी है और उसके परिणाम समक्ष में हैं। बहुत खूबसूरत शेर कहे हैं।
    इस बार जैसे-जैसे ग़ज़ल आ रही हैं, नये-नये शब्‍दों का प्रयोग काफि़या रूप में देखने को मिल रहा है। यूँ ही आगे बढ़ती रही तो मुझे लगता है गठन और कहन की दृष्टि से यह अब तक की श्रेष्‍ठतम तरही होने वाली है।

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    1. आदरणीय तिलक राज कपूर साहब, मैं ओ बी ओ पर कई सदैव आपका स्नेह प्राप्त करता रहा हूँ. इस मंच पर भी आपका आशीर्वाद मिल पाना मेरे लिए बड़ी उपलब्धि है...

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  9. धर्मेंद्र जी तो वैसे भी निर्माण के माहिर हैं ... हर शेर का निर्माण उन्होंने बाखूबी किया है ... उनकी गजलों के परिद्रश्य अलग ही होते हैं यहो उनकी खूबी है ... मौत के पैरों तले .. ऐसे लाजवाब शेर देवेन्द्र जी की कलम से ही निकलते हैं ...
    भुवन जी की लेखनी का कमाल ओ बी ओ में देखा है कई बार ... इस मंच पे उनका स्वागत है ... कमाल के शेर निकले हैं उनकी कलम से ... हर शेर पे दिली दाद ...

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  10. दोनों गजलकारो'को बहुत बहुत बधाइयाँ। बेहतरीन रचनाओं के लिये।

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  11. धर्मेन्द्र भाई "सज्जन" जी ने नववर्ष के मौके पर सुन्दर तरही गज़ल कहे है - ले के अन्ग्डाई उठी है जन्वरी सोयी हुयी - बहुत सुन्दर !!

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  12. भुवन निस्तेज जी को सुनकर याद आ गये नेपाल और दार्जीलिन्ग की पहाडियो मे बीते बचपन के कुछ दिन.
    भुवन जी ने समा बान्ध दिया. एक पर एक शानदार ! ! कस्तो राम्रो गज़ल प्रस्तुत गरे को, तपाई ले मेरो मन जित्यो. अति सुन्दर !


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    1. आदरणीय सुलभ जी, बहुत बहुत धन्यवाद, धेरै, धेरै धन्यवाद...

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  13. भुवन जी भले ही इस ब्लॉग पर पहली बार प्रकाशित हो रहे हैं लेकिन उनकी ग़ज़ल को पढ़कर ऐसा लगता है जैसे उन्हें कई बार इस ब्लॉग पर पढ़ चुका हूँ। काफ़ियों के अनूठे प्रयोग ने उनकी इस ग़ज़ल में चार चाँद लगा दिये हैं। बहुत बहुत बधाई उन्हें इस शानदार ग़ज़ल के लिए और स्वागत उनका इस ब्लॉग परिवार में

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    1. आदरणीय धर्मेन्द्र कुमार साहब, धन्यवाद. मैं आपकी कृति "ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर" पढ़ चुका हूँ और आपके साथ मंच साझा कर पाना मेरे लिए गर्व का विषय है...

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  14. घर्मेंद्र जी की ख़ूबसूरत, व्यावहारिक ग़ज़ल. अमली शायरी की शानदार मिसाल.
    "गुदगुदी, चंचल नदी, क्या लेखनी नव वर्ष की!
    बांध शब्दों में लिया जो शै मिली सोई हुई."

    भुवन निस्तेज जी : आश्चर्य चकित प्रवेश, अचंभित करती शायरी!
    "अनकही थी 'हिमनदी', शाइस्तगी से कह दिया
    जग उठी नेपाल से भी शायरी सोई हुई."

    गुजरात के जामनगर, माण्डवी, मुंडड़ा, मोरबी, राजकोट, अहमदाबाद के लंबे सफर से घर लौटा.... 'तरही' से जुड़े होने के सबब रास्ते में एक क्षण यूँ भी जिया :

    "जानवर भी पेट भर जाए तो आसूदा लगे
    जामफल के पेड़ पर इक गिलहरी सोई हुई! "

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    1. आदरणीय हाशमी साहब, इस स्नेह पूर्ण चकित करती प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार....

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  15. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  16. दोनों शायरों को समर्पित : -

    दिन भी सूना सा, खफ़ा सा, रात भी सोई हुई
    खण्डहर में है कहन की रागिनी सोई हुई

    ले रही अँगड़ाई है क्यों आशिकी सोई हुई
    मोगरे के फूल पर थी चाँदनी सोई हुई

    सायरी के ये उजाले मानसरोवर छू गये
    खिल गयी है जगमगाती आरती सोई हुई

    रास्ता दे देते हैं पत्थर भी हटकर बाअदब
    बीज में जब कुनमुनाती है कली सोई हुई

    चाहता हूँ पूरे मन से ही बधाई दूँ मगर
    थोडी सी ईर्ष्या भी मन में है जगी, सोई हुई


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    1. तरही आयोजन में प्रतिक्रिया स्वरुप प्रस्तुत इस बेहतरीन तरही ग़ज़ल के लिए हार्दिक आभार आदरणीय....

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